"जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिलाकुछ
देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँजो
किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। "
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतींकेवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाएलेकिन
मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन केइस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिलाकुछ
देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँजो
किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
1 comment:
jai ho subhash ki
sab kuch accha accha chahiye
well thanx for this special thought
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